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Tuesday 18 June 2013

मदर टेरेसा की संतई सवालों के घेरे में है और 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की संस्थापक रोमन कैथोलिक 'संत' की 'संत' पदवी रहेगी या जाएगी, इसको लेकर दुनिया में बहस छिड़ गई है। तीन शोधाथिर्यों के एक अध्ययन ने 'मदर' की 'करुणा' और 'दया' पर सवाल उठाते कुछ चौकाने वाले तथ्य पेश किए हैं। अगले महीने इस अध्ययन के छपकर आने की उम्मीद है।
बहुत कम उम्र में ही रोमन कैथोलिक चर्च की नन के नाते कोलकाता आकर दीन-दुखियों की सेवा, 'गरीबों' की तीमारदारी और अपंगों-विकलांगों के जीवन में 'नई उम्मीद की किरण जगाने' के नाम पर कैथोलिकों में एक 'आइकन' के नाते मशहूर 'मदर' के व्यक्तिगत आचार-व्यवहार पर सवाल खड़े किए हैं शोधकर्ताओं ने। वैसे भारत में भी एक बहुत बड़ा वर्ग है जो मानता है कि 'सेवा' की आड़ में 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' ईसाइयत का फैलाव करने वाले केन्द्र के नाते काम करती है, वहां मजबूर, बेसहारा और मासूम गरीबों को दवा-सेवा के बहाने ईसाइयत की खुराक पिलाई जाती है, मतान्तरण वहां के रोजमरर्ा कामकाज का एक अहम हिस्सा है। लेकिन मीडिया के बुने धुंधलके ने 'मदर' को मसीहाई दर्जे तक पहुंचाने में बड़ी तादाद में विदेशी पैसा डकारा और बनी-बनाई कथा-कहानियों, किस्सों के पायदानों के बूते 'मदर' को कैथेलिक पादरियों, बिशपों, कार्डिनलों की नजरों में चढ़ाया।
कनाडा के शोधकर्ताओं ने अध्ययन का निचोड़ निकाला है कि 'मदर टेरेसा' भले कुछ हों, संत तो बिल्कुल नहीं हैं। उन्हें उस शख्सियत तक पहुंचाया मीडिया के सुनियोजित प्रचार ने, जिसने उनकी 'प्रार्थनाओं' को तो खूब तूल देकर छापा, पर मानवता की पीड़ा की बात आई तो उनके फाउंडेशन के दर्द सहते लोगों को नजरअंदाज किया।
इसमें दो राय नहीं कि इस अध्ययन पर विवाद उठाने वाले भी बहुत होंगे। शोधकर्ताओं का मानना है कि दुनियाभर में 'मौत के आगोश' में जाते लोगों और गरीब-गुरबों की 'मसीहा' के रूप में बखानी जाने वाली 'मदर' को वास्तव में गरीबों को कष्ट भोगते देखकर कष्ट होता था, इसमें संदेह है।
अध्ययन में इस बात पर हैरानी जताई गई है कि आखिर वेटिकन ने 'मदर' के उस पहलू को नजर-अंदाज कैसे कर दिया जिसमें दीन-दुखियों को उनकी पीड़ा से निजात दिलाने की बजाय वह उसे और बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने में विश्वास करती थीं। इसके बावजूद वेटिकन ने उन्हें 'संत' बना दिया।
शोध करने वाले सर्गे लारिवी और जेनेवीव चेनार्ड मांट्रियल विश्वविद्यालय के मनोशिक्षा विभाग से जुड़े हैं तो एक कैरोल सेनेशल ओटावा विश्वविद्यालय से हैं। तीनों ने 'मदर' पर प्रकाशित सामग्री का अध्ययन करके लिखा कि उनकी छवि गढ़ी गई थी और 'संतई' एक असरदार मीडिया प्रचार ने दिलाई थी। रोगियों की सेवा के उनके संदिग्ध तरीकों, सवाल खड़े करते उनके राजनीतिक संबंधों, मिलने वाली अकूत राशि का संदिग्ध-प्रबंधन और गर्भपात, गर्भ निरोध और तलाक को लेकर उनके जड़ ख्यालों पर वेटिकन ने बिना सोचे-विचारे 'संत' की पदवी सौंप दी।
कोलकाता सहित तमाम जगहों पर 'मदर' 517 'मिशन' स्थापित कर चुकी थीं जो अंतिम सांसें गिन रहे लोगों के 'आश्रय' के तौर पर काम कर रहे थे। इन जगहों पर गरीबों और रोगियों को रखा तो जाता था, लेकिन ज्यादातर को कोई डाक्टरी सहायता तक नसीब नहीं होती थी। इनको देखने जाने वाले कई डाक्टरों का मानना था कि इन 'आश्रयों' में साफ-सफाई, दवाओं, खाने वगैरह की भारी किल्लत थी। कमी पैसे की नहीं थी क्योंकि 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' को चंदे में लाखों डालर मिलते थे। अध्ययन की मानें तो, 'मदर' के बीमार पड़ने पर उनका इलाज अमरीका के आधुनिक अस्पताल में होता था।
उनको 'संत' बनाने को उतावले वेटिकन ने उनकी मृत्यु के बाद उन्हें 'संत' उपाधि देने से पहले पांच साल इंतजार करने की पहले से चली आ रही समय सीमा में बदलाव करके उसे कम कर दिया था। 'मदर' के तमाम चमत्कारी इलाजों पर भी डाक्टरों ने कई मर्तबा एतराज किया था और साफ कहा था कि फलां मरीज की बीमारी 'मदर' के दिए तावीज से नहीं, बल्कि उनकी दवा से ठीक हुई था। ऐसा एक चर्चित मामला मोनिका बेसरा का था। बेसरा डाक्टरों की दवा से पेट की बीमारी से उबरी थी, न कि 'मदर' के चमत्कार से। लेकिन वेटिकन उसे 'चमत्कार' मानने पर अड़ा था।
इन तीनों शोधकर्ताओं का अध्ययन छप कर आने के बाद और चीजें सामने आएंगी, इसमें शक नहीं है। लेकिन इन शोधकर्ताओं के उठाए सवालों और पहले के कई रहस्योद्घाटनों के चलते 'मदर' 'संत' बनी रहंेगी या नहीं, इसको लेकर लोगों के मन में सवाल उठने जरूर शुरू हो गए हैं।

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