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Tuesday 25 June 2013

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ।।१।।


प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये ।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत् ।।२।।

समुत्कर्षनिःश्रेयस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम् ।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम् ।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम् ।।३।।

।। भारत माता की जय ।।


                                  
जब कोई मनुष्य अपने पूर्वजों के बारे में लज्जित होने लगे, तब समझ लो कि उसका अन्त आ गया। मैं यद्यपि हिन्दू जाति का एक नगण्य घटक हूं तथापि मुझे अपनी जाति पर गर्व है, अपने पूर्वजों पर गर्व है। मैं स्वयं को हिन्दू कहने में गर्व का अनुभव करता हूं। मुझे गर्व है कि मैं आपलोगों का एक तुच्छ सेवक हूं। तुम ऋषियों की सन्तान हो, तुम्हारा देशवासी कहलाने में मैं अपना गौरव मानता हूं। तुम उन महनीय ऋषियों के वंशज हो जो संसार में अद्धितीय रहे हैं। अन्यों से जो लें उसे अपने सांचे में ढाल लें अतएव, आत्मविश्वासी बनो। अपने पूर्वजों पर गर्व करो, उनके नाम से लज्जित मत होओ और अनुकरण मत करो, मत करो। जब कभी तुम दूसरे की प्रभुत्ता स्वीकार करोगे, तभी तुम अपनी स्वाधीनता खो बैठोगे। यहां तक कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यदि तुम केवल दूसरों के आदेशानुसार चलोगे तो धीरे-धीरे तुम्हारी समस्त प्रतिभा-चिन्तनप्रतिभा भी समाप्त हो जाएगी। अपने पुरुषार्थ से अपनी आन्तरिक शक्तियों को विकसित करो, किन्तु अनुकरण मत करो। हां, दूसरो के पास अगर कुछ श्रेष्ठ है तो उसे ग्रहण कर लो। औरों के पास से भी हमें कुछ सीखना ही है। 
बीज को धरती में बो दो और उसे पर्याप्त मिट्टी, हवा तथा जल पोषण के लिए जुटा दो। किन्तु, जब वह बीज पौधा बनता है, एक विशाल वृक्ष में परिणत हो जाता है तो क्या वह मिट्टी बन जाता है, हवा बनता है, जल का रूप धारण कर लेता है? नहीं, वह बीज, मिट्टी, जल आदि जो भी पदार्थ उसके चारों ओर थे, उनसे अपना पोषण रस खींचकर अपनी प्रकृति के अनुकूल एक विशाल वृक्ष का रूप धारणकर लेता है। यही तुम्हारा आदर्श रहना चाहिए।

Monday 24 June 2013

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक इस बार 15,16 व 17 मार्च को जयपुर में हो रही है। इस बैठक में देशभर से लगभग 1400 प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। यह बैठक 1950 से लगातार हो रही है। पहले वह हो जाती थी और संघ-बाह्य क्षेत्रों को न उसकी जानकारी होती थी और न जानकारी पाने की कोई छटपटाहट। पर पिछले 20-25 वर्षों में मीडिया की दृष्टि संघ पर केन्द्रित हो गयी है और वह उसकी प्रत्येक गतिविधि को अपने रंग में रंगकर प्रचारित करता है। इसी कारण कई दिन पहले से मीडिया में इस बैठक की चर्चा प्रारंभ हो गयी। इस बैठक के 'एजेन्डा' के बारे में मीडिया ने तरह-तरह की अटकलें लगाना शुरू कर दिया। कुछ पत्रों में छपा कि इस बैठक में 2014 लोकसभा के लिए रणनीति तैयार की जाएगी। कहीं छपा कि संघ नेतृत्व भाजपा पर अपना नियंत्रण पुन: कठोर बनाने और आडवाणी आदि को प्रभावहीन बनाने की व्यूहरचना तैयार करेगा। कुछ ने लिखा कि राजनीति को पुन: हिन्दुत्व की पटरी पर लाने के लिए गाय-गंगा जैसे प्रतीकों और रामजन्मभूमि मन्दिर के निर्माण के आंदोलन को पुनरुज्जीवित करने की कार्य योजना तैयार की जाएगी।
अधूरी समझ
इन हास्यास्पद और निराधार अटकलों को पढ़कर आश्चर्य होता है कि अपनी सर्वज्ञता के अभिमान में खोया मीडिया अपने देश की सबसे विशाल और पुरानी संगठन धारा की 88 वर्ष लम्बी यात्रा, उसके वास्तविक उद्देश्य और उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसमें आए परिवर्तनों को अब तक नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि पूरी तरह राजनीति-केन्द्रित बन गई है और वह प्रत्येक संगठन और कार्यक्रम को उसी दृष्टि से देखता है। संघ की प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक भी उसका अपवाद नहीं है। मीडिया को अभी तक यह बोध नहीं है कि संघ के लिखित संविधान के अनुसार अ.भा. प्रतिनिधि सभा का क्रम 1950 से चल रहा है, जब भारतीय जनता पार्टी के पूर्वावतार भारतीय जनसंघ का जन्म तक नहीं हुआ था और संघ में यह बहस चल रही थी कि संघ को राजनीति में घसीटने के लिए आतुर अन्तर-बाह्य दबावों का क्या किया जाए। 1951 में जनसंघ के जन्म के पश्चात मीडिया ने संघ पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आरोप लगाकर जनसंघ को राजसत्ता पर काबिज होने के संघ के षड्यंत्र के रूप में देखना शुरू कर दिया। संघ प्रवाह में से जो अनेक रचनात्मक धाराएं प्रगट हुईं, उन्हें भी उन्होंने उसी षड्यंत्र का अंग मान लिया। मीडिया ने 1925 में प्रगटी संघ-गंगा की यात्रा को इतिहास की आंखों से देखने का कोई प्रयास ही नहीं किया और वह आज भी संघ को गणवेशधारी, सैनिक व्यायाम करने वाले शाखातंत्र के रूप में ही चित्रित करता है। राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से चल रहे विशाल रचनात्मक प्रकल्पों को संघ से अलग मानकर उनकी उपेक्षा कर देता है। उसे यह समझने की आवश्यकता है कि राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत संघ एक गतिमान, जीवंत संगठन धारा है, जो गंगा के समान गंगोत्री से निकलते समय एक पतली धारा होती है और आगे बढ़कर अनेक शाखा-प्रशाखाओं वाला विशाल प्रवाह बन जाती है।
नित नूतनचिर पुरातन
संघ अपने राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने के अपने संकल्प पर अटल रहते हुए बदलते युग की आवश्यकता के अनुसार आन्तरिक परिवर्तन अपनाता रहा है। 1947 तक संघ की प्रतिज्ञा में  'अपने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने' का संकल्प होता था। 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद उस प्रतिज्ञा में राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का संकल्प आ गया। लक्ष्य एक है, स्थितियां भिन्न हैं। जिस प्रकार गंगा में जल का प्रवाह निरन्तर आगे बढ़ता जाता है, समुद्र में गिर जाता है, उसकी जगह नया जल स्थान ले लेता है। उसी प्रकार संघ में भी 1947 के पहले का स्वयंसेवक- वर्ग अब काल-कवलित हो चुका है और उसकी जगह वह स्वयंसेवक वर्ग ले रहा है जिसका जन्म 1947 के बाद हुआ है। संघ धारा में से निकली इन विभिन्न रचनात्मक धाराओं का मूल प्रवाह से क्या संबंध है? उस संबंध को कैसे व्याख्यायित किया जाए। एक समय था जब संघ कार्य केवल दैनिक शाखाओं तक सीमित था। तब कहा जाता था कि संघ का शाखा तंत्र उस 'जेनरेटर' के समान है जो दिन-रात घड़-घड़ करके चल रहा है पर उसमें से उत्पन्न राष्ट्रभक्ति का विद्युत प्रवाह आंखों को दिखाई नहीं पड़ता। वह दिखाई तो तब पड़ेगा जब उससे बल्व जलेगा, पंखा चलेगा, मशीन चलेगी। संघ प्रेरित विभिन्न रचनात्मक प्रकल्पों को उस विद्युत शक्ति का प्रयोगात्मक रूप ही कहा जा सकता है। सब रचनात्मक प्रकल्पों का जन्म एक साथ एक समय पर नहीं हुआ। 1946 तक संघ के पास कोई साहित्य, कोई दैनिक पत्र या पत्रिका नहीं थी, कोई अपना भवन नहीं था। 1947 में स्वतंत्रता आने के साथ ही संघ ने पत्र-पत्रिकाओं का शुभारम्भ किया। 1948 में अ.भा. विद्यार्थी परिषद का जन्म हुआ। क्रमश: सरस्वती शिशु मन्दिर, भारतीय जनसंघ, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती जैसे विशाल संगठनों का प्रादुर्भाव हुआ। देशभर में स्थानीय प्रयत्नों से जन्मे सरस्वती शिशु एवं बाल मन्दिरों के मार्गदर्शन के लिए विद्या भारती का गठन हुआ, जो देशभर में 35,000 से अधिक विद्यालयों का मार्गदर्शन करती है। मीडिया की बढ़ती भूमिका को स्वीकार करके संघ ने भी अपने 'प्रचार विभाग' की रचना की है।
वटवृक्ष और उसका विस्तार
इन सबको मिलाकर संघ परिवार भारत के सार्वजनिक जीवन में सबसे विशाल संगठन प्रवाह है। इस प्रवाह की व्याख्या किस रूप में की जाए? संघ स्वयं भी इस व्याख्या के लिए शब्द खोजता रहा है। एक समय था जब कहा जाता था कि शाखा तंत्र वाला संघ एक विश्वविद्यालय के समान है, जहां से छात्र राष्ट्रभक्ति की दीक्षा लेकर बाहर चले जाते हैं और स्वतंत्र रूप से रचनात्मक कार्यों में लग जाते हैं। किन्तु यह वर्णन तो यथार्थ से परे था, क्योंकि ये सभी रचनात्मक कार्य अपना जीवन-रस संघ प्रवाह से ही प्राप्त करते हैं। इस संबंध को बताने के लिए पहले इन प्रकल्पों को आनुषांगिक कार्य कहा गया, फिर अन्य कार्य, फिर विविध कार्य, यानी इन रचनात्मक प्रयासों को शाखा तंत्र से अलग माना गया। इसलिए इन सबको मिलाकर कभी संघ परिवार, कभी संघ विचार-परिवार कहा गया, किन्तु सत्य तो यह है कि ये सब रचनात्मक प्रयास राष्ट्र के सर्वांगीण प्रयास की संघ-प्रतिज्ञा की पूर्ति के माध्यम हैं। अत: अब इन सब कार्यों को 'संघ' नाम में ही सामहित किया जाता है और संघ की उपमा उस वटवृक्ष से दी जाती है, शाखातंत्र जिसका  'तना' है और विभिन्न रचनात्मक प्रकल्प उस तने में से फूटी हुई शाखाएं-प्रशाखाएं, फल और पुष्प। वटवृक्ष रूपी उपमा का साकार रूप अ.भा. प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक में देखा जा सकता है, जहां शाखा तंत्र से जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ इन सभी रचनात्मक प्रकल्पों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित होते हैं। प्रत्येक संगठन अपनी वर्ष भर की गतिविधियों और उपलब्धियों का प्रतिवेदन पूरे परिवार के सामने प्रस्तुत करता है। राजनीति का इस सामूहिक साधना में क्या स्थान है, इसका अनुमान इस एक तथ्य से लग जाता है कि प्रतिनिधि सभा में भाग लेने वाले 1500 प्रतिनिधियों में भाजपा के मुश्किल से 2-3 प्रतिनिधि रहते हैं।
मौन संगठन-साधना
स्वाधीन भारत के भटकाव का मुख्य कारण यह रहा है कि गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता ही आंदोलन का मुख्य आधार था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस आधार की बजाए राजसत्ता को ही राष्ट्र-निर्माण का मुख्य उपकरण मान लिया गया। वोट और दल पर आधारित सत्ताभिमुखी राजनीति ही उसका मुख्य माध्यम बन गई। इस भटकाव का सबसे अधिक असर मीडिया पर हुआ। मीडिया की दृष्टि राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर ही केन्द्रित हो गई। मीडिया ने प्रत्येक राष्ट्रीय संगठन और घटना के पीछे राजनीतिक आकांक्षाएं खोजना शुरू कर दीं। इसका बड़ा शिकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना क्योंकि 'प्रेस, प्लेटफार्म और प्रदर्शन' की वैशाखियों पर आश्रित राजनीतिक कार्यप्रणाली से पूर्णतया अलिप्त संघ की मौन संगठन-साधना को समझ पाना मीडिया के लिए दुष्कर हो गया। वह राजनीतिक कार्य प्रणाली के चश्मे से ही संघ-साधना को भी देखने लगा।
जबकि 1949 में लम्बी बहस के पश्चात संघ राजनीति में आंशिक हस्तक्षेप के लिए विवश हो गया था किन्तु यदि श्रीगुरुजी समग्र के दूसरे खण्ड में उनके 1949 के भाषणों को पढ़ें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस राजनीति के विभाजनकारी, राजनीतिक नेतृत्व की पतनकारी प्रवृत्तियों की उन्हें पूर्व कल्पना हो गई थी, इसलिए इस राजनीति से दूर रहकर, संस्कृति रूपी सूर्य बनकर पूरे राष्ट्रजीवन को प्रकाशित करने के मार्ग पर चलने का आग्रह था।
पर राजनीति से पूरी तरह अलिप्त रहना आज के युग में लगभग असंभव-सा हो गया है फिर भी संघ इस विभाजनकारी, पतनकारी, राष्ट्रीयताविहीन राजनीति के स्वस्थ विकल्प की खोज में लगा रहा। इसी कारण उसने 1974 में लोकनायक जयप्रकाश के 'वोट और दल की राजनीति' के विकल्प के लिए 'सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन' को अपना पूर्ण समर्थन दिया। आज भी संघ की मुख्य चिन्ता यही है कि भारत के सार्वजनिक जीवन को वर्तमान राजनीतिक पतन के गर्त से बाहर कैसे निकाला जाए।
चुनौतियां और सार्थक प्रयास
संघ यह देखकर चिन्तित है कि 88 वर्षों से वह भारतीय समाज को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में गूंथने की जो साधना कर रहा है, उस पर वोट राजनीति के फलस्वरूप सामाजिक विखंडन और अखिल भारतीय राष्ट्रभक्ति पर संकीर्ण निष्ठाओं का प्राबल्य हावी हो रहा है। कभी-कभी लगता है कि हौज में राष्ट्रीय एकता का जल भरने वाली संघ साधना एक इंच व्यास के नल की तरह है, जबकि उस हौज को खाली करने वाली 'वोट राजनीति' के नल का व्यास पांच इंच का है। संघ एक घंटे में राष्ट्रभक्ति का जो पानी भरता है, उसे वोट-राजनीति 10 मिनट में खाली कर देती है।
संघ को दूसरी चिन्ता यह है कि भारतीय संस्कृति के उदात्त जीवन मूल्यों के आधार पर जिस चरित्रवान, नैतिक समाज रचना का संकल्प लेकर वह चला था, आज समाज जीवन का बिल्कुल उल्टा दृश्य उसके सामने है। टैक्नालाजी द्वारा प्रदत्त मनोरंजन, शरीर सुख और विलासिता के नित नए उपकरणों के अविष्कार ने पूरी जीवन शैली को बदल डाला है। परिवार का वातावरण और दिनचर्या बदल गई है। हमारी प्राचीन संस्कृति 'अर्थ' और 'काम' की जन्मजात एषणाओं को संयमित करने की साधना करती आई है, यही साधना गांधीजी के आंदोलन की मुख्य प्रेरणा थी, पर आधुनिक टैक्नालाजी द्वारा निर्मित उपभोक्तावादी सभ्यता प्रचार के नए साधनों के द्वारा इन्हीं एषणाओं के उद्दीपन का वातावरण पैदा कर रही है। इसीलिए टेलीविजन, इंटरनेट और प्रिंट मीडिया केवल आर्थिक भ्रष्टाचार और उच्छृंखल यौनाचार के समाचारों से पटा रहता है। वह दिखाता तो यह है कि इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगना चाहिए और इसके लिए वह सरकार व पुलिस के विरुद्ध जनाक्रोश भड़काता है, किन्तु समाज के हस्तक्षेप पर 'मोरल पुलिस' जैसे व्यंग्य वाणों से हमला बोल देता है। संघ एक नैतिक समाज जीवन की रचना के लिए संकल्पबद्ध है। अत: उसे टैक्नालाजी, मीडिया और राजनीति के शक्तिशाली प्रहारों का सामना करते हुए अपनी संस्कृति साधना को विजय की ओर ले जाना है। अ. भा. प्रतिनिधि सभा की बैठकों में सत्ता-राजनीति का नहीं, इस संस्कृति साधना के बारे में ही विचार-मंथन होता है। उसकी चिन्ता यह है कि कहीं वह अनैतिकता के विशाल समूह में नैतिकता का छोटा- सा द्वीप तो नहीं रह जाएगा।

Sunday 23 June 2013

हिन्दुस्थान ने हजारो वर्षों तक अजेय शक्ति एवं समृधि का जीवन जीते हुए भी केवल अपने आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक प्रकाश को ही सम्पूर्ण विश्व में प्रसृत किया | सुदूर अतीत एवं मध्य अतीत में भारत से गए हुए साधू,सन्यासी एवं विद्वानों ने जिस ज्ञान के आलोक का प्रसार किया - उसके साक्षी आज भी मेक्सिको, जापान, चीन, मंगोलिया, इंडोनेसिया, साइबेरिया, मलाया, आदि देश है | इस्लाम और ईसाइयत के समान हिंदुत्व का झंडा कभी भी रक्त और आँसुओ के समुद्र में से होकर सामरिक विजय की ओर नहीं बढा | अमरीका में जाकर बसने वाली यूरोप की जातियों के समान वहाँ के स्थानीय निवासियों के संहार जैसा कोई कलंक भारत के माथे पर कभी नहीं लगा | हिंदू ने कभी विनाश करने का नहीं, सदा विकास का ही सोचा है, जो जहाँ है वहाँ से उसे आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया |

" कोई बतलाये काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी |
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जितने का निश्चय ||

यही कारण था की भारत के इस नैतिक ओर सांस्कृतिक अभियान का स्थानीय जनता ने स्वागत किया | यह जीत थी स्वार्थत्याग की, चारित्र्य की और उदात्त भावनाओ की, जिसने लोगो में विद्रोह के नहीं कृतज्ञता के भाव भरे | सदियाँ बीत जाने पर भी इस देश के प्रति वह कृतज्ञता का भाव कम नहीं हुआ | भारत का नाम सुनते ही डॉ. रघुवीर जैसे महामनीषी के सामने नतमस्तक होने वाले साइबेरिया के वयोवृद्ध की श्रधा में अथवा इंडोनेशिया से भारत आने वाले मुसलमान से गंगाजल लाने का आग्रह करने वाली उनकी पत्नी की इच्छा में क्या हमे इसी कृतज्ञता के दर्शन नहीं होते ? उन देशो के निवासियों के लिए भारत का प्रवास केवल प्रवास नहीं, तीर्थयात्रा है | 

Saturday 22 June 2013

जो भारत को इंडिया कहते है वे मात्र लॉर्ड मैकाले के दिये वचनो का पालन कर रहे है इंडिया बोलने से पहले विचारे : क्या अर्थ है इंडिया का ? कुछ नहीं ... हर भारतीय के नाम का अर्थ है | हमारे यहाँ बिना भावार्थ के नाम रखने की असांस्कृतिक परंपरा नहीं है |

अंग्रेज़ो को भारत नाम बोलने मे परेशानी होती थी -अंग्रेज़ इंडियन उस व्यक्ति को कहते है जो उनके हिसाब से जाहिल माना जाता है, -अंग्रेज़ इंडियन उस व्यक्ति को कहते जो पाषाण कालीन जीवन जीता है Remember the old British notorious signboard 'Dogs and Indians not allowed'. लेकिन हमारे भारत नाम का अर्थ है भारत : भा = प्रकाश + रत = लीन ( हमेशा प्रकाश, ज्ञान मे लीन ) इतना महान अर्थ से परिपूर्ण देश का नाम है |

Friday 21 June 2013

यह वही प्राचीन भूमि है, जहां दूसरे देशों को जाने से पहले तत्वज्ञान ने आकर अपनी वासभूमि बनायी थी। यह वही भारत है, जहां के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसके बहने वाले समुद्राकार नद हैं, जहां चिरन्तन हिमालय श्रेणीबद्ध उठा हुआ अपने हिमशिखरों द्वारा मानों स्वर्गराज्य के रहस्यों की ओर निहार रहा है। यह वही भारत है, जिसकी भूमि पर संसार के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की चरणरज पड़ चुकी है। यहीं सबसे पहले मनुष्य-प्रकृति तथा अन्तर्जगत के रहस्योद्घाटन की जिज्ञासाओं के अंकुर उगे थे।
यह वही भारत है जो शताब्दियों के आघात, विदेशियों के शत-शत आक्रमण और सैकड़ों आचार-व्यवहारों के विपर्यय सहकर भी अक्षय बना हुआ है। यह वही भारत है जो अपने अविनाशी वीर्य और जीवन के साथ अब तक पर्वत से भी दृढ़तर भाव से खड़ा है। आत्मा जैसे अनादि, अनन्त और अमृतस्वरूप है, वैसे ही हमारी भारतभूमि का जीवन है। और हम इसी देश की सन्तान हैं।
भारत की सन्तानों, तुमसे आज मैं यहां कुछ व्यावहारिक बातें कहूंगा, और तुम्हें तुम्हारे पूर्व गौरव की याद दिलाने का उद्देश्य केवल इतना ही है। कितनी ही बार मुझसे कहा गया है कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल नहीं होता, अत: हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। यह सच है। परन्तु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। अत: जहां तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरन्तन निर्झर बह रहा हैं, आकण्ड उसका जल पीओ और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्जवलतर, महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठाओ। हमारे पूर्वज महान थे। पहले यह बात हमें याद करनी होगी। हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है। उस खून पर हमें विश्वास करना होगा। और अतीत के उसके कृतित्व पर भी, इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा।
किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुतर हैं। जाति, धर्म, भाषा, शासन-प्रणाली-ये ही एक साथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं। यदि एक-एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाए तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र संगठित हुए हैं, वे संख्या में यहां के उपादानों से कम हैं। यहां आये हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं- मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना-अपना खून मिला रही हैं।
हमारी एकमात्र सम्मिलन-भूमि है-हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी पर हमें संगठन करना होगा। यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है। किन्तु एशिया में राष्ट्रीय ऐक्य का आधार धर्म ही है, अत: भारत के भविष्य-संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की ही आवश्यकता है। देश भर में एक ही धर्म सबको स्वीकार करना होगा। एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है। हम जानते हैं, हमारे विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्धान्त तथा दावे चाहे कितने ही भिन्न क्यों न हों, हमारे धर्म में कुछ सिद्धान्त ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इस तरह हमारे सम्प्रदायों के ऐसे कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं। उनका स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भूत विविधता के लिए, गुंजाइश हो जाती है, और साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवननिर्वाह के लिए हमें सम्पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है। अत: हम देखते हैं कि एशिया में और विशेषत: भारत में जाति, भाषा, समाज-सम्बंधी सभी बाधाएं, धर्म की इस एकीकरण-शक्ति के सामने उड़ जाती हैं। हम जानते हैं कि भारतीय मन के लिए धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है। धर्म ही भारतीय जीवन का मूलमंत्र हैं, और हम केवल सबसे कम बाधा वाले मार्ग का अनुसरण करके ही कार्य में अग्रसर हो सकते हैं। यह केवल सत्य ही नहीं कि धार्मिक आदर्श यहां सबसे बड़ा आदर्श है, किन्तु भारत के लिए कार्य करने का एकमात्र सम्भाव्य उपाय यही है।
हमने देखा है कि हमारा धर्म ही हमारे तेज, हमारे बल, यही नहीं, हमारे राष्ट्रीय जीवन का भी मूल आधार है। इस समय मैं यह तर्क-वितर्क करने नहीं जा रहा हूं कि धर्म उचित है या नहीं, सही है या नहीं, और अन्त तक यह लाभदायक है या नहीं, किन्तु अच्छा हो या बूरा, धर्म ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का प्राण है, तुम उससे निकल नहीं सकते। अभी और चिरकाल के लिए भी तुम्हें उसी का अवलम्ब ग्रहण करना होगा और तुम्हें उसी के आधार पर खड़ा होना होगा, चाहे तुम्हें इस पर उताना विश्वास हो या न हो, जो मुझे है। तुम इसी धर्म में बंधे हुए हो, और अगर तुम इसे छोड़ दो तो चूर-चूर हो जाओगे। वही हमारी जाति का जीवन है और उसे अवश्य ही सशक्त बनाना होगा। तुम जो युगों के धक्के सहकर भी अक्षय हो, इसका कारण केवल यहीं है कि धर्म के लिए तुमने बहुत कुछ प्रयत्न किया था, उस पर सब कुछ निछावर किया था। तुम्हारे पूर्वजों ने धर्म रक्षा के लिए सब कुछ साहसपूर्वक सहन किया था, मृत्यु को भी उन्होंने हृदय से लगाया था। विदेशी हमलावरों द्वारा मन्दिर के बाद मन्दिर तोड़े गए, परन्तु उस बाढ़ के वह जाने में देर नहीं हुई कि मन्दिर के कलश फिर खड़े हो गए। दक्षिण के ये ही कुछ पुराने मन्दिर और गुजरात के सोमनाथ के जैसे मन्दिर तुम्हें विपुल ज्ञान प्रदान करेंगे। वे जाति के इतिहास के भीतर वह गहरी अन्तदृष्टि देंगे, जो ढेरों पुस्तकों से भी नहीं मिल सकती। देखों कि किस तरह ये मन्दिर सैकड़ों आक्रमणों और सैकड़ों पुनरुत्थानों के चिह्न धारण किये हुए हैं, ये बार-बार नष्ट हुए अब पहले ही की तरह अटल रूप से खड़े हैं। इसलिए इस धर्म में ही हमारे राष्ट्र का मन है, हमारे राष्ट्र का जीवनप्रवाह है। इसका अनुसरण करोगे तो यह तुम्हें गौरव की ओर ले जाएगा। इसे छोड़ों तो मृत्यु ही एकमात्र परिणाम होगा और पूर्ण नाश ही एकमात्र परिणति। मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि दूसरी चीज की आवश्यकता ही नहीं, मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि राजनीतिक या सामाजिक उन्नति अनावश्यक है, किन्तु मेरा तात्पर्य यही है और मैं तुम्हें सदा इसकी याद दिलाना चाहता हूं कि ये सब यहां गौण विषय हैं, मुख्य विषय धर्म है।

Thursday 20 June 2013

आजतक जो इतिहास पढाया गया सब झूठा है | इतिहास में पढाया गया अकबर महान | महाराणा प्रताप महान नहीं ? शिवाजी महान नहीं ? महाराणा प्रताप पद भरष्ट देशभगत थे इसको कहने वाले इतिहासकार | हम उस इतिहास को नहीं मानते जिसमे महाराणा प्रताप महान नहीं | इस इतिहास को वो माने जो अकबर को महान कहते है | वो अकबर, ये इतिहास क्यों नहीं पढाया जाता की अकबर मीना बाज़ार लगवाता था आगरा में और मीना बाज़ार में खुद औरतो के वेश में जाता था और जो औरत पसंद आती थी उसे ले आता था | ये भी इतिहास है की बीकानेर की राजकुमारी किरण देवी उस मीना बाज़ार में आई थी और अकबर की दासिया उसे बहला फुसलाकर ले गयी और अकबर के सामने ले जाकर पहुची, उसने अकबर की बुर्नियत को देखा और बताते है की अकबर को गिराकर उसकी छाती पर छुरी लेकर चढ गयी और तब अकबर ने उसको बहिन बनाकर उससे माफ़ी मांगी | ये भी तो इतिहास है ये क्यों नहीं पढाया जाता ? ये क्यों नहीं पढाया जाता की अकबर ने तुलसीदास को क़ैद किया ? आजतक पढाते आये की कुतुबमीनार कुतुब्दीन एबक ने बनायीं | क्या खाक बनायीं | मीनार के सामने सरकार का शिलालेख लगा है की यह २४ मंदिरों को तोड़कर बनायीं | पता चला जब उसके निचे से मंदिरों की मुर्तिया निकली, पत्थर निकले | तब पता चलता है की असली इतिहास कौन है लेकिन इतिहासकार इस बात पर मौन है |


To opine on the policy of minorities, we must define who is minority in this nation. What has been the attitude of majority towards minorities in this nation is another important aspect of the subject.
In proper perspective, only those people, who had to take refuge in another nation because they were thrown out of their country by the invaders, can be called a minority. In this perspective, in Bharat, only Jews and Parsis can be termed as minorities in every sense. In the context of the above definition, Muslims and Christians, who are termed as minorities because of vote bank politics, can never be termed as minorities, because 99.99 % of them have not come from outside. Some generations back, due to the compulsions of situation, their forefathers, who were children of this very nation, changed their religion. In such situation, to call them minorities is in itself equivalent to promoting divisive politics.
Bharat is the only nation in the world, where in its original Hindu tradition; there are no compulsions in observance of religion. Every person is totally free to call God by the name of his choice, and worship him in his own preferred way. Because of this unique tradition, the Jews and Parsis who came here as refugees, never felt that they were aliens, and it is for this very reason that when they were offered special reservations for them in our Constitution, they not only refused it, but by their acts and deeds, proved that they have completely integrated themselves with the national mainstream.
This unique aspect of Hinduism is amply substantiated by many Supreme Court decisions.

Wednesday 19 June 2013

भाग-1...
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सर्व प्रथम ताजमहन के नाम के सम्‍बन्‍ध में ओक साहब ने कहा कि नाम - (क्रम संख्‍या 1 से 8 तक) 

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमता
जमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है - पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से "मुम" को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।


6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। 'ताज' और 'महल' दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।


भाग-2
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फिर उन्‍होने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है (क्रम संख्‍या 9 से 17 तक) 

9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।

15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।

भाग-3
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ओक साहब ने भारतीय प्रामाणिक दस्तावेजो द्वारा इसे मकबरा मानने से इंकार कर दिया है ( क्रम संख्‍या18 से 24 तक)

18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकब़राबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

भाग-4
विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना ( क्रम संख्‍या 25 से 29 तक)
25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को 'ताज-ए-मकान', जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies' जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।

भाग-5
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संस्कृत शिलालेख द्वारा क्रम संख्‍या 30 द्वारा

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, "एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।" शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को 'बटेश्वर शिलालेख' नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम 'तेजोमहालय शिलालेख' होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।

शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar....now in the grounds of Agra,...it is well known, once stood in the garden of Tajmahal".
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(फोटो- दीवारों पर बने हुए फूल.......जिनमे छुपा हुआ है ओम् ( ॐ ) ....

Amendments brought in the Delimitation Act could help them to some extent: Union Minister for Minority Affairs 
Union Minister for Minority Affairs K. Rahman Khan has stated that poor awareness among Muslims has been the major impediment in accessing government schemes by the community, even as he admitted defects in the delivery systems.
“Defective delivery mechanisms are not a problem just to minorities’ schemes but it’s glitch for all schemes implemented by governments in the country. However, lack of proper awareness about the schemes being designed and implemented for Muslims has been denying them of the opportunities,” the Minister felt while participating in a debate on the implementation of Sachar Committee recommendations here on Friday. He noted that the Centre had accepted 72 out of 76 recommendations made by the committee but could not implement three aspects due to some technical reasons. He said that they were in the process of putting in practice national diversity index, preparing a data bank and setting up an equal opportunities commission.
Faulting NGOs (non-governmental organisations) for not involving them much in the implementation of schemes for Muslims the Union Minister said they were planning to set up NGOs’ advisory councils from national to block level to improve their participation.
Responding to remarks and suggestions of other panel members – Amitabh Kundu of JNU, Zahed Ali Khan, Editor of Siasat, Wajahat Habibullah, Chairperson of National Committee for Minorities, and others – the Minister said it was not possible to implement political reservation for Muslims but the amendments brought in the Delimitation Act could help them to some extent in future.
On the “attitude of hatred towards Muslims whenever the incidents of terrorism occur” the Union Minister said change must come in the society and the social inclusion of Muslims could help overcome the problem.
Later, at the valedictory of a conference on the “Status of Muslim women in Indian sub-continent” in Maulana Azad National Urdu University (MANUU) Mr. Rahman Khan said reservation to Muslims in education and employment had limited purpose and it was not a solution for their emancipation.
Social activist from Gujarat Teesta Seetalvad said Muslim women must overcome patriarchy, prejudice and majoritarianism to put an end to their oppression.
मुर्ख इतिहास तो यही कहता है कि जयपुर के राजा भारमल की बेटी का विवाह मुगल शासक अकबर के साथ हुआ था किंतु सच कुछ और ही है...!

वस्तुत: न तो जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कराया गया था और न ही विदाई के समय जोधाबाई को दिल्ली ही भेजा गया था. अब प्रश्न उठता है कि फिर जोधाबाई के नाम पर किस युवती से अकबर का विवाह रचाया गया था ?


अकबर का विवाह जोधाबाई के नाम पर दीवान वीरमल की बेटी पानबाई के साथ रचाया गया था. दीवान वीरमल का पिता खाजूखाँ अकबर की सेना का मुखिया था. किसी बड़ी ग़लती के कारण अकबर ने खाजूखाँ को जेल में डालकर खोड़ाबेड़ी पहना दी और फाँसी का हुक्म दिया. मौका पाकर खाजूखाँ खोड़ाबेड़ी तोड़ जेल से भाग गया और सपरिवार जयपुर आ पगड़ी धारणकर शाह बन गया. खाजूखाँ का बेटा वीरमल बड़ा ही तेज और होनहार था, सो दीवान बना लिया गया. यह भेद बहुत कम लोगों को ही ज्ञात था.! दीवान वीरमल का विवाह दीवालबाई के साथ हुआ था. पानबाई वीरमल और दीवालबाई की पुत्री थी. पानबाई और जोधाबाई हम उम्र व दिखने में दोनों एक जैसी थी. इस प्रकरण में मेड़ता के राव दूदा राजा मानसिंह के पूरे सहयोगी और परामर्शक रहे. राव दूदा के परामर्श से जोधाबाई को जोधपुर भेज दिया गया. इसके साथ हिम्मत सिंह और उसकी पत्नी मूलीबाई को जोधाबाई के धर्म के पिता-माता बनाकर भेजा गया, परन्तु भेद खुल जाने के डर से दूदा इन्हें मेड़ता ले गया, और वहाँ से ठिकानापति बनाकर कुड़की भेज दिया. जोधाबाई का नाम जगत कुंवर कर दिया गया और राव दूदा ने उससे अपने पुत्र का विवाह रचा दिया. इस प्रकार जयपुर के राजा भारमल की बेटी जोधाबाई उर्फ जगत कुंवर का विवाह तो मेड़ता के राव दूदा के बेटे रतन सिंह के साथ हुआ था. विवाह के एक वर्ष बाद जगत कुंवर ने एक बालिका को जन्म दिया. यही बालिका मीराबाई थी. इधर विवाह के बाद अकबर ने कई बार जोधाबाई (पानबाई) को कहा कि वह मानसिंह को शीघ्र दिल्ली बुला ले. पहले तो पानबाई सुनी अनसुनी करती रही परन्तु जब अकबर बहुत परेशान करने लगा तो पानबाई ने मानसिंह के पास समाचार भेजा कि वें शीघ्र दिल्ली चले आये नहीं तो वह सारा भेद खोल देगी. ऐसी स्थिति में मानसिंह क्या करते, उन्हें न चाहते हुए भी मजबूर होकर दिल्ली जाना पड़ा. अकबर व पानबाई उर्फ जोधाबाई दम्पति की संतान सलीम हुए, जिसे इतिहास जहाँगीर के नाम से जनता है !
पिछले कुछ दशकों में भारत की आंतरिक सुरक्षा को भारी खतरा पैदा हुआ है और अधिकांश खतरे बाहरी मदद से और भी घातक साबित हो रहे हैं। नशीली दवाओं की तस्करी एक नए खतरे के रूप में उभरी है, जिससे भारत में जिहादी गतिविधियों और विद्रोही आंदोलनों को सुलगाया जा रहा है। उग्रवादियों, विद्रोहियों तथा आतंकवादियों को हमारे पड़ोसी देशों द्वारा विध्वंसक गतिविधियों के लिए पैसा और पनाह दी जा रही है।
भारत के उत्तर-पूर्व और उत्तर-पश्चिम में नशीले पदार्थों के दो सबसे बड़े उत्पादक देश-म्यांमार और पाकिस्तान हैं। दोनों ने भारत के विद्रोही गुटों को मदद दी है और उन्हें उकसाया है। सीमा-पार आतंकवाद को सत्ता नीति के रूप में अपना कर पाकिस्तान जिहादी आतंकवाद के गढ़ के रूप में उभरा है। वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भारत के खिलाफ परोक्ष युद्ध के लिए निहित स्वार्थों को मोहरा बनाया।
अमरीका ने 1989 में अफगान युद्ध के बाद पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को तुर्की और मध्य एशिया से नशीले पदार्थों की तस्करी के पुराने मार्गों पर नजर रखने को कहा था। पाकिस्तान की आईएसआई ने राह भटके युवकों को फुसलाकर हथियारों के बदले नशीले पदाथों को पंजाब में लाने को कहा। इस प्रकार पंजाब की सीमा से सटे अमृतसर और गुरदासपुर इलाके इस क्षेत्र में नशीली दवाओं की निकासी के नए रास्ते बन गए और खालिस्तानी आतंकवादियों ने इन्हें ले जाने का काम संभाल लिया। हथियारों और नशीली दवाओं के इस गठजोड़ के चलते नशीली दवाओं के व्यापार और उग्रवाद ने भारत के उत्तर-पूर्व, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में अपने पांव पसारे और देश के कई हिस्सों में आंतरिक गड़बड़ियां शुरू हो गईं। 1990 के दशक में सेना ने अनुमान लगाया था कि कश्मीर में उग्रवाद को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान हर महीने 30 करोड़ रुपए खर्च कर रहा था। 1993 में मुम्बई बम विस्फोट तथा देश के शहरी इलाकों में बम हमलों के दौरान नशीले पदाथों से जुड़ा आतंकवाद भी सामने आया। तस्करी के पुराने मार्ग राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके का भी आईएसआई ने भरपूर इस्तेमाल किया। भारत के उत्तर-पूर्व की 4,500 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा उत्तर में चीन, पूर्व में म्यांमार, दक्षिण पश्चिम में बंगलादेश और उत्तर पश्चिम में भूटान के साथ लगती है। नागा विद्रोह के जनक फिजो को काफी पहले 1956 में पाकिस्तान ने समर्थन दिया था, तब वह भाग कर ढाका चला गया था, जहां से विद्रोह का झंडा बुलंद करने के लिए वह लंदन चला गया। इसी प्रकार चीन ने नागा विद्रोहियों को
छापामार युद्ध का प्रशिक्षण व हथियार दिए। उत्तरपूर्व के विद्रोहियों को म्यांमार के विद्रोही संगठनों से भी मदद मिली है। उत्तरपूर्व में आईएसआई की भूमिका सम्पर्क सूत्र के रूप में रही है, क्योंकि उसके इस क्षेत्र के कई विद्रोही गुटों के साथ सम्बंध हैं।
भारत के उत्तर में भी यही हालात हैं। आईएसआई और हथियार-नशे के सौदागरों के निशाने पर आ जाने के कारण भारत का पंजाब राज्य नशे की लत की गिरफ्त में आ गया और यह बीमारी मालवा, माझा और दोआबा इलाकों तक फैल गई है। पुलिस के अनुसार, 2011 के पहले दो महीनों में ही राज्य में 2,150 किलोग्राम अफीम, 25,500 किलोग्राम पोस्त-भूसी, 376 ग्राम हेरोइन, 35 किलोग्राम चरस, 21,607 किलोग्राम नाकोर्टिक्स पाउडर और 1,500 किलोग्राम गांजा पकड़ा गया था। साफ है कि इस सीमावर्ती राज्य को कमजोर करना पाकिस्तान की रणनीति का   हिस्सा है।
कश्मीर में जिहाद में भी नशीली दवाओं और बंदूकों ने अहम भूमिका अदा की है। सच तो यह है कि जम्मू-कश्मीर में, खासकर दक्षिण कश्मीर के पुलवामा और अनंतनाग जिलों में अब बड़े पैमाने पर पोस्त और गांजे की खेती की जा रही है। टाइम्स आफ इंडिया की एक रपट के अनुसार, माओवादी नशीली दवाओं के गिराहों को संरक्षण देने के नाम पर उनका फायदा उठाते हैं। उड़ीसा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में यह गठजोड़ एक समस्या बना हुआ है |

Tuesday 18 June 2013

मदर टेरेसा की संतई सवालों के घेरे में है और 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की संस्थापक रोमन कैथोलिक 'संत' की 'संत' पदवी रहेगी या जाएगी, इसको लेकर दुनिया में बहस छिड़ गई है। तीन शोधाथिर्यों के एक अध्ययन ने 'मदर' की 'करुणा' और 'दया' पर सवाल उठाते कुछ चौकाने वाले तथ्य पेश किए हैं। अगले महीने इस अध्ययन के छपकर आने की उम्मीद है।
बहुत कम उम्र में ही रोमन कैथोलिक चर्च की नन के नाते कोलकाता आकर दीन-दुखियों की सेवा, 'गरीबों' की तीमारदारी और अपंगों-विकलांगों के जीवन में 'नई उम्मीद की किरण जगाने' के नाम पर कैथोलिकों में एक 'आइकन' के नाते मशहूर 'मदर' के व्यक्तिगत आचार-व्यवहार पर सवाल खड़े किए हैं शोधकर्ताओं ने। वैसे भारत में भी एक बहुत बड़ा वर्ग है जो मानता है कि 'सेवा' की आड़ में 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' ईसाइयत का फैलाव करने वाले केन्द्र के नाते काम करती है, वहां मजबूर, बेसहारा और मासूम गरीबों को दवा-सेवा के बहाने ईसाइयत की खुराक पिलाई जाती है, मतान्तरण वहां के रोजमरर्ा कामकाज का एक अहम हिस्सा है। लेकिन मीडिया के बुने धुंधलके ने 'मदर' को मसीहाई दर्जे तक पहुंचाने में बड़ी तादाद में विदेशी पैसा डकारा और बनी-बनाई कथा-कहानियों, किस्सों के पायदानों के बूते 'मदर' को कैथेलिक पादरियों, बिशपों, कार्डिनलों की नजरों में चढ़ाया।
कनाडा के शोधकर्ताओं ने अध्ययन का निचोड़ निकाला है कि 'मदर टेरेसा' भले कुछ हों, संत तो बिल्कुल नहीं हैं। उन्हें उस शख्सियत तक पहुंचाया मीडिया के सुनियोजित प्रचार ने, जिसने उनकी 'प्रार्थनाओं' को तो खूब तूल देकर छापा, पर मानवता की पीड़ा की बात आई तो उनके फाउंडेशन के दर्द सहते लोगों को नजरअंदाज किया।
इसमें दो राय नहीं कि इस अध्ययन पर विवाद उठाने वाले भी बहुत होंगे। शोधकर्ताओं का मानना है कि दुनियाभर में 'मौत के आगोश' में जाते लोगों और गरीब-गुरबों की 'मसीहा' के रूप में बखानी जाने वाली 'मदर' को वास्तव में गरीबों को कष्ट भोगते देखकर कष्ट होता था, इसमें संदेह है।
अध्ययन में इस बात पर हैरानी जताई गई है कि आखिर वेटिकन ने 'मदर' के उस पहलू को नजर-अंदाज कैसे कर दिया जिसमें दीन-दुखियों को उनकी पीड़ा से निजात दिलाने की बजाय वह उसे और बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने में विश्वास करती थीं। इसके बावजूद वेटिकन ने उन्हें 'संत' बना दिया।
शोध करने वाले सर्गे लारिवी और जेनेवीव चेनार्ड मांट्रियल विश्वविद्यालय के मनोशिक्षा विभाग से जुड़े हैं तो एक कैरोल सेनेशल ओटावा विश्वविद्यालय से हैं। तीनों ने 'मदर' पर प्रकाशित सामग्री का अध्ययन करके लिखा कि उनकी छवि गढ़ी गई थी और 'संतई' एक असरदार मीडिया प्रचार ने दिलाई थी। रोगियों की सेवा के उनके संदिग्ध तरीकों, सवाल खड़े करते उनके राजनीतिक संबंधों, मिलने वाली अकूत राशि का संदिग्ध-प्रबंधन और गर्भपात, गर्भ निरोध और तलाक को लेकर उनके जड़ ख्यालों पर वेटिकन ने बिना सोचे-विचारे 'संत' की पदवी सौंप दी।
कोलकाता सहित तमाम जगहों पर 'मदर' 517 'मिशन' स्थापित कर चुकी थीं जो अंतिम सांसें गिन रहे लोगों के 'आश्रय' के तौर पर काम कर रहे थे। इन जगहों पर गरीबों और रोगियों को रखा तो जाता था, लेकिन ज्यादातर को कोई डाक्टरी सहायता तक नसीब नहीं होती थी। इनको देखने जाने वाले कई डाक्टरों का मानना था कि इन 'आश्रयों' में साफ-सफाई, दवाओं, खाने वगैरह की भारी किल्लत थी। कमी पैसे की नहीं थी क्योंकि 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' को चंदे में लाखों डालर मिलते थे। अध्ययन की मानें तो, 'मदर' के बीमार पड़ने पर उनका इलाज अमरीका के आधुनिक अस्पताल में होता था।
उनको 'संत' बनाने को उतावले वेटिकन ने उनकी मृत्यु के बाद उन्हें 'संत' उपाधि देने से पहले पांच साल इंतजार करने की पहले से चली आ रही समय सीमा में बदलाव करके उसे कम कर दिया था। 'मदर' के तमाम चमत्कारी इलाजों पर भी डाक्टरों ने कई मर्तबा एतराज किया था और साफ कहा था कि फलां मरीज की बीमारी 'मदर' के दिए तावीज से नहीं, बल्कि उनकी दवा से ठीक हुई था। ऐसा एक चर्चित मामला मोनिका बेसरा का था। बेसरा डाक्टरों की दवा से पेट की बीमारी से उबरी थी, न कि 'मदर' के चमत्कार से। लेकिन वेटिकन उसे 'चमत्कार' मानने पर अड़ा था।
इन तीनों शोधकर्ताओं का अध्ययन छप कर आने के बाद और चीजें सामने आएंगी, इसमें शक नहीं है। लेकिन इन शोधकर्ताओं के उठाए सवालों और पहले के कई रहस्योद्घाटनों के चलते 'मदर' 'संत' बनी रहंेगी या नहीं, इसको लेकर लोगों के मन में सवाल उठने जरूर शुरू हो गए हैं।

स्वामी चिद्भवानन्द जी चेन्नै में रामकृष्ण मिशन के संन्यासी थे। प्रारम्भ में संघ के बारे में उनकी अच्छी धारणा नहीं थी, किन्तु उन्होंने मई, 1980 के संघ शिक्षा वर्ग, चेन्नै के समापन समारोह में अपनी धारणा में सुधार करते हुए यह उद्गार प्रकट किया, 'हे युवको! तुम सब सौभाग्यशाली हो, क्योंकि तुम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में जो प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हो यह बिल्कुल वही है जिसकी स्वामी विवेकानन्द ने मानव-निर्माण के लिए तथा प्रत्येक व्यक्ति में सच्चरित्रता, अनुशासन, देश तथा देशवासी के प्रति प्रेम के संचार के लिए संकल्पना की थी।' आगे उन्होंने कहा कि मुझे विश्वास हो गया है कि स्वामी जी की व्यक्ति-निर्माण की योजना को संघ साकार रूप दे रहा है। यह स्वामी जी का कार्य है, ईश्वरीय कार्य है।

स्वामी अखण्डानंद और गुरुजी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी रामकृष्ण मिशन से सीधे जुड़े हुए थे। उन्होंने संन्यास-दीक्षा स्वामी जी के प्रिय गुरु भाई स्वामी अखण्डानन्द जी से सन् 1937 में प्राप्त की थी। स्वामी जी अखण्डानन्द जी ने अपना जीवन सारगाछी में समाज के दीन, दुर्बल बन्धुओं की सेवा में लगाया। अपने गुरु की  महासमाधि के पश्चात् श्री गुरुजी नागपुर में पुन: डाक्टर जी के सम्पर्क में आये। तरुण भारत के सम्पादक श्री भाऊसाहब मडखोलकर ने श्री गुरुजी के देहावसान के पश्चात 5 जून, 1973 को लेख लिखा था। उस लेख में श्री मडखोलकर ने श्री गुरुजी के साक्षात्कार का उल्लेख करते हुए लिखा कि उनका झुकाव अध्यात्म और राष्ट्रीय पुनरुत्थान दोनों की ओर था। श्री गुरुजी ने सोचा कि मैं यह कार्य संघ द्वारा भी अच्छी तरह से कर सकता हूं। यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि स्वामी जी का कार्य ही पूर्णतया संघ का कार्य है। 
स्वामी जी मतान्तरण के घोर विरोधी थे। उनका कहना था 'किसी एक व्यक्ति के हिन्दू-समाज को त्याग देने पर इस समाज का केवल एक व्यक्ति कम नहीं हो जाता, बल्कि उसके शत्रुओं की संख्या में एक की वृद्धि हो जाती है।' एक सम्पादक ने स्वामी जी से पूछा 'जो भाई मतान्तरित हो गये हैं, क्या उनको फिर से हिन्दू- धर्म में लाया जाना चाहिये?़' स्वामी जी बोले-अवश्य! उनको अवश्य लाया जा सकता है और लाना भी चाहिये। श्री गुरुजी का सन् 1956 के भाषण का सारांश भी यही था कि जो भाई हमसे बिछुड़कर ईसाई या मुसलमान बन गये हैं, उनको अपने धर्म में लाना चाहिये। श्री गुरुजी के आह्वान पर संघ के कार्यकर्त्ता वनवासी क्षेत्र में सेवा, समर्पण और स्नेह के आधार पर कार्य करके बिछुड़े बन्धुओं को घर वापस लाये। सन् 1981 में मीनाक्षीपुरम् में मुस्लिमों द्वारा कराये गये सामूहिक मतान्तरण ने हिन्दू समाज के मानस को झकझोर दिया। इसके विरोध में संघ के स्वयंसेवकों ने हिन्दू पुनर्जागरण का कार्य चलाया। तमिलनाडू में दो हजार सभाएं की गयी और उनमें मतान्तरण के खतरों पर प्रकाश डाला गया।
श्री गुरुजी की प्रेरणा से सन् 1952 में श्री बालासाहेब देशपाण्डे ने जसपुर में एक छात्रावास तथा स्कूल खोलकर वनवासी क्षेत्र मे सेवा-कार्य प्रारम्भ किया। आज वनवासी क्षेत्र में चौदह हजार सेवा प्रकल्प चल रहे हैं। यह स्वामी जी के विचारों का ही मूर्तरूप है। ऐसे असंख्य साक्ष्य हैं जब संघ के स्वयंसेवक राष्ट्रीय-आपदा के समय, रक्षा कार्यों में सदैव अग्रणी रहे। 1966 में बिहार का अकाल, 1977 में आन्ध्र का तूफान, 1984 में भोपाल गैस कांड- इन सब त्रासदियों में स्वयंसेवकों ने सेवा-कार्य का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। संघ के स्वयंसेवकों ने स्वामी जी के 'नर सेवा-नारायण सेवा, जीव सेवा-शिव सेवा के आदर्श को व्यवहार में लाकर दिखाया। संघ के स्वयंसेवक, समाज के प्रत्येक क्षेत्र में, राष्ट्रीय पुनरुत्थान के प्रत्येक कार्य में अनवरत संलग्न रहे हैं। गत सत्तासी वर्ष की सुदीर्घ विकास यात्रा में लक्षावधि स्वयंसेवक लोक-कल्याण और राष्ट्र-निर्माण के पुनीत सेवा-कार्यों में निरन्तर निष्ठापूर्वक निष्काम भाव से जुटे रहे हैं और राष्ट्र-वंदना के अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करते रहे हैं।

दर्शन वही, कार्य सही

स्वामी जी के विचार-दर्शन की गंगा को धरातल पर लाने वाले इस युग के भागीरथ डाक्टर हेडगेवार थे। विवेकानन्द सार्द्ध शती समारोह एक ऐतिहासिक अवसर है जो भारत को ही नहीं, समूचे विश्व को नया मोड़ देगा। केवल हिन्दुत्व ही वह संजीवनी है जो मानवता के संताप का परिहार कर सकती है। डाक्टर जी तथा श्री गुरुजी ने स्वामी जी की भाव-धारा को संजोकर हिन्दू-राष्ट्र की सुप्त शक्ति को जगाया। सार्द्ध शती समारोह के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज को साथ लेकर उत्साहपूर्वक जुटा है।  स्वामी जी के राष्ट्रीय पुनरुत्थान के विचारों का क्रियात्मक रूप ही संघ है। स्वामी जी युगान्तरकारी महापुरुष थे, जिन्होंने भारतीय इतिहास की दिशा को मोड़ दिया। भगिनी निवेदिता ने कहा था,  'श्री रामकृष्ण देव प्राचीन भारत के पांंच सौ वर्ष का प्रतिनिधत्व करते थे, और स्वामी जी आने वाले भारत के तीन सौ वर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं।' स्वामी जी की युवाओं से बहुत अपेक्षाएं थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ युवाओं के आन्दोलन का संगठन है। संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत अपने व्याख्यानों में कहते हैं कि युवा-शक्ति ही भारत की दिशा और दशा को नया मोड़ देगी।  भारत के भविष्य-निर्माण का समय आ गया है। संघ स्वामी जी के कार्यों को पूर्ण करेगा। यह सार्द्ध शती राष्ट्र में नव-चैतन्य का संचरण करेगी। भारत माता पुन: अपने गौरव मंडित उच्च-शिखर पर अधिष्ठित होगी। स्वामी जी अपने जीवन के अंतिम काल में कह गये थे कि मैं नश्वर शरीर को त्यागने के बाद भी निरन्तर कार्य करता जाऊंगा। स्वामी जी संघ रूप में हमारे बीच में हैं और हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं।
इस समय चारो ओर घोर अन्धकार छाया हुआ है। परन्तु विशास है कि स्वर्णिम प्रभात शीघ्र आने वाला है। अब  भारत को विश्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। यह भारत की नियति है। भारत ही विश्व को नया मोड़ देने में सक्षम है। आसुरी शक्तियों का पराभव होने वाला है और शीघ्र ही नवयुग के सूर्य का उदय होगा। स्वामी विवेकानन्द का जो स्वप्न था, वह संघ-शक्ति के द्वारा साकार होगा
सीताराम व्यास

Monday 17 June 2013

जब संघ की स्थापना हुई , उस समय अपने हिंदू समाज की स्थिति ऐसी थी की जो उठता था वही हिंदू समाज पर आक्रमण करता था और यह दृश्य बना हुआ था की जब कभी भी कोई आक्रमण होगा तो हिंदू पिटेगा, हिंदू मरेगा, हिंदू लूटेगा | यह एक परम्परा बन गयी थी | इसलिए हिंदू यानि दब्बू, हिंदू यानि कायर, हिंदू यानि गौ जैसा बड़ा ही शांत रहने वाला प्राणी | इसका तुम अपमान करो तो वह प्रतिकार नहीं करता, इसको मारो तो चुप-चाप मार खाता है | 
 
लेकिन इस प्रकार का आत्मविश्वासशुन्य शक्तिशुन्य समाज इस दुनिया में ससम्मान रह नहीं सकता | इसलिए अपने संघ के संस्थापक परमपूजनीय डॉ. हेडगेवार जी ने जब देखा की हिंदू समाज पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहे है और हिंदू समाज इस देश का राष्ट्रीय समाज होते हुए भी चुप-चाप सारे अपमानो को सहन कर रहा है, सारे आक्रमणों को झेल रहा है, प्रतिकार नहीं करता तो उन्हें लगा की यह तो ठीक नहीं है | इसलिए उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मैं इस हिंदू समाज को बलसंपन, सामर्थ्यसम्पन बनाकर दुनिया में उसे एक अजेय शक्ति के रूप में खड़ा करूँगा | इस हिंदू समाज को संगठित करूँगा और प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्र के प्रति देशभक्ति का भाव जगे, इसलिए शक्ति पूजन के दिन विजयादशमी के दिन सन १९२५ में नागपुर में उन्होंने संघ कार्य की नीव रखी  |
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईएके आरोप पत्र में स्वामी असीमानंद का नाम नहींसाध्वी प्रज्ञा का भीनहीं किसी भी राष्ट्रवादी संगठन की भूमिका नहीं संघ का नाम घसीटकर 'भगवा आतंकवादका शोरमचाने वाले अब कहां हैंसच कौन बोल रहा है सीबीआईएटीएस या फिर एनआईएअगर ये हिन्दूदोषी हैं तो उन 9 आरोपी मुस्लिमों ने जो कबूला थावह क्या lÉÉ? =xÉ मुस्लिमों से सीबीआई ने दबावदेकर सच उगलवाया था या इन हिन्दुओं को प्रताड़ित कर एनआईए ने झूठ पर दस्तखत करवाए?
आखिरकार 22 मई को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने मुम्बई के विशेष न्यायालय में वह बहुप्रतीक्षित आरोप पत्र दाखिल कर ही दिया, जिसका शोर मचाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ पदाधिकारियों का नाम बदनाम किया जा रहा था और 'भगवा आतंकवाद' का झूठा शोर मचाया जा रहा था। अपना पूरा जोर लगाकर, कानून की धज्जियां उड़ाकर, कुछ निरपराध-निर्दोष लोगों को यातना देकर, लालच देकर भी, एनआईए के हाथ ऐसा कुछ नहीं लगा है, यह उसके आरोप पत्र से साफ हो गया है। गृह मंत्रालय और उसके तत्कालीन मुखिया पी.चिदम्बरम के इशारे पर एनआईए ने जो झूठी कहानी गढ़ी थी, उसे सिद्ध करने के लिए कुल मिलाकर 3 हजार पन्नों के आरोप पत्र में उसका कहना है कि जम्मू के रघुनाथ मंदिर में बम विस्फोट (2002), श्रमजीवी एक्सप्रेस में विस्फोट(2005) और वाराणसी के संकटमोचन मंदिर में विस्फोट (2006) की घटनाओं की प्रतिक्रिया में मालेगांव में विस्फोट (2006 एवं 2008), मक्का मस्जिद (हैदराबाद), समझौता एक्सप्रेस (2007) एवं अजमेर की दरगाह शरीफ में बम विस्फोट की साजिश रची गई थी। और इसमें सीमापार के मुस्लिम आतंकवादियों  और उनके भारतीय मुस्लिम समर्थकों का नहीं वरन कुछ हिन्दुओं और उनके संगठनों का ही हाथ था। और एनआईए को यह सब तब पता चला जब उसकी पकड़ में स्वामी असीमानंद आए। गुजरात के डांग जिले में ईसाइयों द्वारा मतांतरण के विरुद्ध जनजागरण का प्रतीक बन चुके स्वामी असीमानंद को हैदराबाद की मक्का मस्जिद के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया है और फिलहाल वे अम्बाला (हरियाणा) के कारागार में बंदी हैं। 18 सितम्बर, 2011 को उनके एक द्वारा दिए गए एक इकबालिया बयान को जानबूझकर 'लीक' किया गया, अखबारों में प्रचारित कराया गया और फिर उसी आधार पर उक्त मामलों की तेजी से जांच शुरू की गई।
(हालांकि स्वामी असीमानंद ने जेल से शपथ पत्र भेजकर अम्बाला के न्यायाधीश को बताया है कि उन्हें बहुत प्रताड़ित कर जबरन यह बयान दिलवाया गया था, उसकी आंतरिक कथा अलग से) और तब कुछ नाम उछाले गए- कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा, सुनील जोशी, रामजी कालसांगरा, संदीप डांगे आदि-आदि। गढ़ी गई कहानी के अनुरूप सबूत तलाशने और जुटाने में जुटी एनआईए खाक छानती रही, पर मिला कुछ नहीं। यहां तक कि सुनील जोशी, जिन्हें धमाकों का 'मास्टर माइंड' बताकर प्रचारित किया गया, संघ का पूर्व प्रचारक बताया गया, और जिनकी बाद में हत्या हो गयी, उनकी हत्या के आरोप में गिरफ्तार मुकेश वासानी और हर्षद सोलंकी ने ही जयपुर की अदालत में हलफनामा दिया कि 16 अप्रैल, 2012 से तीन दिन की पूछताछ के दौरान एनआईए के अधिकारियों ने कहा कि संघ और उसके एक वरिष्ठ अधिकारी (इंद्रेश जी) के  षड्यंत्र में शामिल होने का नाम भर ले दो, दोनों को एक-एक करोड़ रुपया मिलेगा।
   बहरहाल, थक-हारकर मालेगांव बम धमाके का नया आरोप पत्र दाखिल करते हुए एनआईए ने उसकी गिरफ्त में आए लोकेश शर्मा, धन सिंह, राजेन्द्र चौधरी और मनोहर को आरोपी बनाया है। कथित तौर पर मुख्य आरोपी और योजना के सूत्रधार रामचन्द्र कालसांगरा (रामजी), संदीप डांगे और अमित चौहान को गिरफ्त से बाहर बताया गया है। रामजी और संदीप पर तो 10-10 लाख रू. का इनाम भी घोषित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सब आरोपी देवास तथा इंदौर(म.प्र.) के रहने वाले हैं। आरोप पत्र में कहा गया है कि 8 सितम्बर, 2006 को नासिक जिले के मुस्लिम बहुल मालेगांव के बड़ा कब्रिस्तान, मुशावरत चौक और हमीदिया मस्जिद के पास जो बम विस्फोट हुए थे, जिसमें 37 लोग मारे गए और 130 घायल हुए, के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं। इन्होंने धारा 164 के तहत सक्षम अधिकारी के समक्ष अपना अपराध स्वीकार कर लिया है। पर एनआईए अपनी ही रची हुई कहानी में उलझकर रह गई है। वह न यह सुबूत जुटा पाई कि इंदौर के लोग मालेगांव ही क्यों गए? क्या उनके आसपास कोई मस्जिद नहीं थी, जहां वे विस्फोट करा पाते? इन लोगों ने अधिक जोखिम क्यों उठाया? मालेगांव कैसे गए, वहां उनका सहयोग किन लोगों ने किया? अगर मालेगांव में उनका कोई सहयोगी नहीं था तो वे मुस्लिमबहुल बस्तियों तक कैसे पहुंचे? और जिन साइकिलों में बम बांधे गए वह साइकिलें किसने और कहां से खरीदीं? और अगर एनआईए द्वारा रची गई यह कहानी सच्ची है तो मालेगांव के ही उन 9 मुस्लिम अभियुक्तों के बारे में वह चुप क्यों हैं जिन्होंने धारा 164 के तहत ही अपराध कबूला था और बम विस्फोट की पूरी कथा और घटनाक्रम बताया था? मालेगांव के विशेष पुलिस दस्ते, फिर महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) के साथ मिलकर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने जो जांच की थी, उस दौरान कुल 13 मुस्लिम आरोपियों के नाम सामने आए थे, जिनमें से अधिकांश प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) से प्रभावित थे और उसके प्रतिबंधित हो जाने के बाद भूमिगत रहकर सक्रिय थे। कुल पकड़े गए 9 मुस्लिम आरोपियों ने कहा था कि मंदिरों में हमले के बावजूद हिन्दू-मुस्लिम दंगे न भड़कने के कारण अपनी रणनीति में परिवर्तन करते हुए सीमा पार के आकाओ ने मस्जिद में धमाके की साजिश रची थी, ताकि हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक उग्र प्रतिक्रिया देने वाला मुस्लिम वर्ग सड़क पर उतर आए और महाराष्ट्र सहित देश भर में दंगे हों। इसीलिए कम शक्ति वाले बम से विस्फोट कराए गए ताकि जन-धन की  हानि कम हो और प्रतिक्रिया ज्यादा भीषण। 21 दिसम्बर, 2006 को विशेष न्यायालय में प्रस्तुत 2800 पृष्ठों के पहले आरोप पत्र में सभी 9 आरोपियों ने अपराध की स्वीकारोक्ति की थी, सारी कड़ियां जुड़ी हुई थीं। 5 फरवरी, 2007 को यही मामला जब सीबीआई को जांच के लिए सौंपा गया तब भी तथ्य और सत्य वही रहे। पकड़े गए 9 आरोपी जेल में थे और न्यायालय में गवाहियों का दौर जारी था। इसी बीच गृह मंत्रालय ने हस्तक्षेप किया और 22 मार्च, 2011 को यह मामला नए सिरे से जांच के लिए एनआईए को सौंप दिया गया। एनआईए ने अपने आकाओं द्वारा दिखाई गई दिशा में नए सिरे से जांच की, कुछ वैसा ही सिद्ध करना चाहा, पर परिणाम वैसा नहीं निकला। इस बीच हुआ यह कि नवम्बर, 2011 में मालेगांव धमाके के मामले में निरुद्ध इन सभी 9 आरोपियों को जमानत मिल गई, क्योंकि एनआईए ने उनकी जमानत याचिकाओं का विरोध ही नहीं किया। मजे की बात यह कि अब नया आरोप पत्र दाखिल कर दिया और उन 9 को दोषमुक्त भी नहीं करार दिया। यानी अब मुम्बई की विशेष अदालत में मालेगांव में 2006 में हुए 3 बम धमाकों के दो मामले चलेंगे। एक में 13 मुस्लिम आरोपी (9 जमानत पर, 4 भगोड़े) और दूसरे में 7 हिन्दू आरोपी (4 गिरफ्त में, 3 भगोड़े)। भारतीय कानून के लिहाज से यह एक अनोखा मुकदमा होगा जिसमें एक ही  वारदात के लिए दो अलग-अलग जांच एजेंसियों के दो अलग-अलग आरोप पत्रों और निष्कर्षों पर बहस होगी। सच तो कानूनी पचडों के चलते देर से ही सामने आएगा, पर एनआईए की करतूत तो सामने आ ही गई है।

एनआईए को मुंह की खानी पड़ेगी

-रंजन त्यागीअधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायाल्
भारतीय दंड संहिता के अनुसार एक अपराध के लिए सिर्फ एक ही मुकदमा दर्ज हो सकता है, यानी एक ही प्रथम सूचना रपट दर्ज हो सकती है। फिर भले उसकी जांच अलग-अलग एजेंसियों करें, कितने ही पूरक आरोप पत्र दाखिल होते रहें, पर न तो नए सिरे से नया आरोप पत्र दाखिल हो सकता है, न नई मुकदमा संख्या बन सकती। एनआईए ने जो किया है उसे निचली अदालत में ही चुनौती मिलेगी और उसे वहां मुंह की खानी पड़ेगी। भले उसने अपने नए एक्ट का सहारा लिया हो पर भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) केअन्तर्गत ऐसा नहीं हो सकता।ाय

कौन सही कौन गलत?

अगर एनआईए का नया आरोपपत्र सही है तो 2006 और 2007 में नासिक के विशेष जांच दल, महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते और सीबीआई ने जो आरोप पत्र दाखिल किया था, क्या वह झूठा था? 2006 में गिरफ्तार और 2011 में जमानत पर छूटे 9 मुस्लिम युवक क्या बेगुनाह माने जाएंगे? कानूनी स्थिति क्या होगी, दोनों आरोप पत्रों पर एक साथ सुनवाई होगी या अलग-अलग? अगर एनआईए उन आरोपियों को दोषमुक्त नहीं करार दे सकती, क्योंकि यह न्यायालय का काम है, तो फिर न्यायालय में सरकार की ओर से मुस्लिम आरोपियों के खिलाफ कौन पैरवी करेगा और हिन्दुओं के खिलाफ कौन? यदि दोनों के खिलाफ एनआईए के वकील ही खड़े होंगे तो कैसे? किस कहानी को सच और किसे झूठ बताएंगे? अगर सीबीआई के आरोप पत्र को झूठ बताएंगे तो क्या एक जांच एजेंसी दूसरे के खिलाफ खड़ी होगी?

इन आरोपियों ने यह जो कबूलाक्या झूठ था?

अहमद मसीउल्लाह-'मालेगांव में 2002 में हुए दंगे के बाद सिमी से जुड़ा, उसकी सहायता से दुबई होकर कराची गया, वह हथियार चलाने और बम बनाने की ट्रेनिंग ली, फिर दुबई से नेपाल होकर भारत वापस आया, पासपोर्ट फाड़ दिया, बम धमाकों की साजिश रचने में शामिल हुआ और बम बनाए। मस्जिद में और शब-ए-बारात के दिन कब्रिस्तान में इसलिए बम लगवाए ताकि मुस्लिम सड़क पर उतरें, दंगे हो और भारत अस्थिर हो जाए।'
अहमद राजब-'बम बनाने में शब्बीर का साथ दिया। मदरसे के सामने कब्रिस्तान की रेलिंग के पास बम लगाया। तीन धमाकों के बाद भी दंगा नहीं भड़का तो 13 सितम्बर, 2006 को एक दूसरा नकली बम भी मुस्लिमबहुल इलाके में लगाया, जो जिंदा बरामद हुआ।'
शम्सु दोहा-'जिहाद ही हमारी प्रेरणा है। भारत में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। गुजरात का भी बदला लेना था, इसलिए सिमी के सरगनाओं के इशारे पर कम शक्ति वाले बम बनवाकर मस्जिदों में लगवाए ताकि मुस्लिम सड़क पर उतरें और दंगे हो, हम भारत सरकार को बदनाम कर सकें।'
मुहम्मद अली आलम शेख-'सिमी ने ट्रेनिंग दी थी। जिहाद हमारा उद्देश्य है। डा.तनवीर, ऐहतसान, फैजल, मुजम्मिल, आरिफ, जावेद, जमीर, साजिद, सोहेल शेख के साथ टीम बनाकर काम किया। शब्बीर ने सामान दिया तो बम बनाए और उसके ही इशारे पर मस्जिद और कब्रिस्तान में लगाए। प्रस्तुति: जितेन्द्र तिवारी