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Tuesday 25 June 2013

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ।।१।।


प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये ।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत् ।।२।।

समुत्कर्षनिःश्रेयस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम् ।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम् ।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम् ।।३।।

।। भारत माता की जय ।।


                                  
जब कोई मनुष्य अपने पूर्वजों के बारे में लज्जित होने लगे, तब समझ लो कि उसका अन्त आ गया। मैं यद्यपि हिन्दू जाति का एक नगण्य घटक हूं तथापि मुझे अपनी जाति पर गर्व है, अपने पूर्वजों पर गर्व है। मैं स्वयं को हिन्दू कहने में गर्व का अनुभव करता हूं। मुझे गर्व है कि मैं आपलोगों का एक तुच्छ सेवक हूं। तुम ऋषियों की सन्तान हो, तुम्हारा देशवासी कहलाने में मैं अपना गौरव मानता हूं। तुम उन महनीय ऋषियों के वंशज हो जो संसार में अद्धितीय रहे हैं। अन्यों से जो लें उसे अपने सांचे में ढाल लें अतएव, आत्मविश्वासी बनो। अपने पूर्वजों पर गर्व करो, उनके नाम से लज्जित मत होओ और अनुकरण मत करो, मत करो। जब कभी तुम दूसरे की प्रभुत्ता स्वीकार करोगे, तभी तुम अपनी स्वाधीनता खो बैठोगे। यहां तक कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यदि तुम केवल दूसरों के आदेशानुसार चलोगे तो धीरे-धीरे तुम्हारी समस्त प्रतिभा-चिन्तनप्रतिभा भी समाप्त हो जाएगी। अपने पुरुषार्थ से अपनी आन्तरिक शक्तियों को विकसित करो, किन्तु अनुकरण मत करो। हां, दूसरो के पास अगर कुछ श्रेष्ठ है तो उसे ग्रहण कर लो। औरों के पास से भी हमें कुछ सीखना ही है। 
बीज को धरती में बो दो और उसे पर्याप्त मिट्टी, हवा तथा जल पोषण के लिए जुटा दो। किन्तु, जब वह बीज पौधा बनता है, एक विशाल वृक्ष में परिणत हो जाता है तो क्या वह मिट्टी बन जाता है, हवा बनता है, जल का रूप धारण कर लेता है? नहीं, वह बीज, मिट्टी, जल आदि जो भी पदार्थ उसके चारों ओर थे, उनसे अपना पोषण रस खींचकर अपनी प्रकृति के अनुकूल एक विशाल वृक्ष का रूप धारणकर लेता है। यही तुम्हारा आदर्श रहना चाहिए।

Monday 24 June 2013

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक इस बार 15,16 व 17 मार्च को जयपुर में हो रही है। इस बैठक में देशभर से लगभग 1400 प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। यह बैठक 1950 से लगातार हो रही है। पहले वह हो जाती थी और संघ-बाह्य क्षेत्रों को न उसकी जानकारी होती थी और न जानकारी पाने की कोई छटपटाहट। पर पिछले 20-25 वर्षों में मीडिया की दृष्टि संघ पर केन्द्रित हो गयी है और वह उसकी प्रत्येक गतिविधि को अपने रंग में रंगकर प्रचारित करता है। इसी कारण कई दिन पहले से मीडिया में इस बैठक की चर्चा प्रारंभ हो गयी। इस बैठक के 'एजेन्डा' के बारे में मीडिया ने तरह-तरह की अटकलें लगाना शुरू कर दिया। कुछ पत्रों में छपा कि इस बैठक में 2014 लोकसभा के लिए रणनीति तैयार की जाएगी। कहीं छपा कि संघ नेतृत्व भाजपा पर अपना नियंत्रण पुन: कठोर बनाने और आडवाणी आदि को प्रभावहीन बनाने की व्यूहरचना तैयार करेगा। कुछ ने लिखा कि राजनीति को पुन: हिन्दुत्व की पटरी पर लाने के लिए गाय-गंगा जैसे प्रतीकों और रामजन्मभूमि मन्दिर के निर्माण के आंदोलन को पुनरुज्जीवित करने की कार्य योजना तैयार की जाएगी।
अधूरी समझ
इन हास्यास्पद और निराधार अटकलों को पढ़कर आश्चर्य होता है कि अपनी सर्वज्ञता के अभिमान में खोया मीडिया अपने देश की सबसे विशाल और पुरानी संगठन धारा की 88 वर्ष लम्बी यात्रा, उसके वास्तविक उद्देश्य और उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसमें आए परिवर्तनों को अब तक नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि पूरी तरह राजनीति-केन्द्रित बन गई है और वह प्रत्येक संगठन और कार्यक्रम को उसी दृष्टि से देखता है। संघ की प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक भी उसका अपवाद नहीं है। मीडिया को अभी तक यह बोध नहीं है कि संघ के लिखित संविधान के अनुसार अ.भा. प्रतिनिधि सभा का क्रम 1950 से चल रहा है, जब भारतीय जनता पार्टी के पूर्वावतार भारतीय जनसंघ का जन्म तक नहीं हुआ था और संघ में यह बहस चल रही थी कि संघ को राजनीति में घसीटने के लिए आतुर अन्तर-बाह्य दबावों का क्या किया जाए। 1951 में जनसंघ के जन्म के पश्चात मीडिया ने संघ पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आरोप लगाकर जनसंघ को राजसत्ता पर काबिज होने के संघ के षड्यंत्र के रूप में देखना शुरू कर दिया। संघ प्रवाह में से जो अनेक रचनात्मक धाराएं प्रगट हुईं, उन्हें भी उन्होंने उसी षड्यंत्र का अंग मान लिया। मीडिया ने 1925 में प्रगटी संघ-गंगा की यात्रा को इतिहास की आंखों से देखने का कोई प्रयास ही नहीं किया और वह आज भी संघ को गणवेशधारी, सैनिक व्यायाम करने वाले शाखातंत्र के रूप में ही चित्रित करता है। राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से चल रहे विशाल रचनात्मक प्रकल्पों को संघ से अलग मानकर उनकी उपेक्षा कर देता है। उसे यह समझने की आवश्यकता है कि राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत संघ एक गतिमान, जीवंत संगठन धारा है, जो गंगा के समान गंगोत्री से निकलते समय एक पतली धारा होती है और आगे बढ़कर अनेक शाखा-प्रशाखाओं वाला विशाल प्रवाह बन जाती है।
नित नूतनचिर पुरातन
संघ अपने राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने के अपने संकल्प पर अटल रहते हुए बदलते युग की आवश्यकता के अनुसार आन्तरिक परिवर्तन अपनाता रहा है। 1947 तक संघ की प्रतिज्ञा में  'अपने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने' का संकल्प होता था। 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद उस प्रतिज्ञा में राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का संकल्प आ गया। लक्ष्य एक है, स्थितियां भिन्न हैं। जिस प्रकार गंगा में जल का प्रवाह निरन्तर आगे बढ़ता जाता है, समुद्र में गिर जाता है, उसकी जगह नया जल स्थान ले लेता है। उसी प्रकार संघ में भी 1947 के पहले का स्वयंसेवक- वर्ग अब काल-कवलित हो चुका है और उसकी जगह वह स्वयंसेवक वर्ग ले रहा है जिसका जन्म 1947 के बाद हुआ है। संघ धारा में से निकली इन विभिन्न रचनात्मक धाराओं का मूल प्रवाह से क्या संबंध है? उस संबंध को कैसे व्याख्यायित किया जाए। एक समय था जब संघ कार्य केवल दैनिक शाखाओं तक सीमित था। तब कहा जाता था कि संघ का शाखा तंत्र उस 'जेनरेटर' के समान है जो दिन-रात घड़-घड़ करके चल रहा है पर उसमें से उत्पन्न राष्ट्रभक्ति का विद्युत प्रवाह आंखों को दिखाई नहीं पड़ता। वह दिखाई तो तब पड़ेगा जब उससे बल्व जलेगा, पंखा चलेगा, मशीन चलेगी। संघ प्रेरित विभिन्न रचनात्मक प्रकल्पों को उस विद्युत शक्ति का प्रयोगात्मक रूप ही कहा जा सकता है। सब रचनात्मक प्रकल्पों का जन्म एक साथ एक समय पर नहीं हुआ। 1946 तक संघ के पास कोई साहित्य, कोई दैनिक पत्र या पत्रिका नहीं थी, कोई अपना भवन नहीं था। 1947 में स्वतंत्रता आने के साथ ही संघ ने पत्र-पत्रिकाओं का शुभारम्भ किया। 1948 में अ.भा. विद्यार्थी परिषद का जन्म हुआ। क्रमश: सरस्वती शिशु मन्दिर, भारतीय जनसंघ, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती जैसे विशाल संगठनों का प्रादुर्भाव हुआ। देशभर में स्थानीय प्रयत्नों से जन्मे सरस्वती शिशु एवं बाल मन्दिरों के मार्गदर्शन के लिए विद्या भारती का गठन हुआ, जो देशभर में 35,000 से अधिक विद्यालयों का मार्गदर्शन करती है। मीडिया की बढ़ती भूमिका को स्वीकार करके संघ ने भी अपने 'प्रचार विभाग' की रचना की है।
वटवृक्ष और उसका विस्तार
इन सबको मिलाकर संघ परिवार भारत के सार्वजनिक जीवन में सबसे विशाल संगठन प्रवाह है। इस प्रवाह की व्याख्या किस रूप में की जाए? संघ स्वयं भी इस व्याख्या के लिए शब्द खोजता रहा है। एक समय था जब कहा जाता था कि शाखा तंत्र वाला संघ एक विश्वविद्यालय के समान है, जहां से छात्र राष्ट्रभक्ति की दीक्षा लेकर बाहर चले जाते हैं और स्वतंत्र रूप से रचनात्मक कार्यों में लग जाते हैं। किन्तु यह वर्णन तो यथार्थ से परे था, क्योंकि ये सभी रचनात्मक कार्य अपना जीवन-रस संघ प्रवाह से ही प्राप्त करते हैं। इस संबंध को बताने के लिए पहले इन प्रकल्पों को आनुषांगिक कार्य कहा गया, फिर अन्य कार्य, फिर विविध कार्य, यानी इन रचनात्मक प्रयासों को शाखा तंत्र से अलग माना गया। इसलिए इन सबको मिलाकर कभी संघ परिवार, कभी संघ विचार-परिवार कहा गया, किन्तु सत्य तो यह है कि ये सब रचनात्मक प्रयास राष्ट्र के सर्वांगीण प्रयास की संघ-प्रतिज्ञा की पूर्ति के माध्यम हैं। अत: अब इन सब कार्यों को 'संघ' नाम में ही सामहित किया जाता है और संघ की उपमा उस वटवृक्ष से दी जाती है, शाखातंत्र जिसका  'तना' है और विभिन्न रचनात्मक प्रकल्प उस तने में से फूटी हुई शाखाएं-प्रशाखाएं, फल और पुष्प। वटवृक्ष रूपी उपमा का साकार रूप अ.भा. प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक में देखा जा सकता है, जहां शाखा तंत्र से जुड़े कार्यकर्ताओं के साथ इन सभी रचनात्मक प्रकल्पों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित होते हैं। प्रत्येक संगठन अपनी वर्ष भर की गतिविधियों और उपलब्धियों का प्रतिवेदन पूरे परिवार के सामने प्रस्तुत करता है। राजनीति का इस सामूहिक साधना में क्या स्थान है, इसका अनुमान इस एक तथ्य से लग जाता है कि प्रतिनिधि सभा में भाग लेने वाले 1500 प्रतिनिधियों में भाजपा के मुश्किल से 2-3 प्रतिनिधि रहते हैं।
मौन संगठन-साधना
स्वाधीन भारत के भटकाव का मुख्य कारण यह रहा है कि गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता ही आंदोलन का मुख्य आधार था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस आधार की बजाए राजसत्ता को ही राष्ट्र-निर्माण का मुख्य उपकरण मान लिया गया। वोट और दल पर आधारित सत्ताभिमुखी राजनीति ही उसका मुख्य माध्यम बन गई। इस भटकाव का सबसे अधिक असर मीडिया पर हुआ। मीडिया की दृष्टि राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर ही केन्द्रित हो गई। मीडिया ने प्रत्येक राष्ट्रीय संगठन और घटना के पीछे राजनीतिक आकांक्षाएं खोजना शुरू कर दीं। इसका बड़ा शिकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना क्योंकि 'प्रेस, प्लेटफार्म और प्रदर्शन' की वैशाखियों पर आश्रित राजनीतिक कार्यप्रणाली से पूर्णतया अलिप्त संघ की मौन संगठन-साधना को समझ पाना मीडिया के लिए दुष्कर हो गया। वह राजनीतिक कार्य प्रणाली के चश्मे से ही संघ-साधना को भी देखने लगा।
जबकि 1949 में लम्बी बहस के पश्चात संघ राजनीति में आंशिक हस्तक्षेप के लिए विवश हो गया था किन्तु यदि श्रीगुरुजी समग्र के दूसरे खण्ड में उनके 1949 के भाषणों को पढ़ें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस राजनीति के विभाजनकारी, राजनीतिक नेतृत्व की पतनकारी प्रवृत्तियों की उन्हें पूर्व कल्पना हो गई थी, इसलिए इस राजनीति से दूर रहकर, संस्कृति रूपी सूर्य बनकर पूरे राष्ट्रजीवन को प्रकाशित करने के मार्ग पर चलने का आग्रह था।
पर राजनीति से पूरी तरह अलिप्त रहना आज के युग में लगभग असंभव-सा हो गया है फिर भी संघ इस विभाजनकारी, पतनकारी, राष्ट्रीयताविहीन राजनीति के स्वस्थ विकल्प की खोज में लगा रहा। इसी कारण उसने 1974 में लोकनायक जयप्रकाश के 'वोट और दल की राजनीति' के विकल्प के लिए 'सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन' को अपना पूर्ण समर्थन दिया। आज भी संघ की मुख्य चिन्ता यही है कि भारत के सार्वजनिक जीवन को वर्तमान राजनीतिक पतन के गर्त से बाहर कैसे निकाला जाए।
चुनौतियां और सार्थक प्रयास
संघ यह देखकर चिन्तित है कि 88 वर्षों से वह भारतीय समाज को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में गूंथने की जो साधना कर रहा है, उस पर वोट राजनीति के फलस्वरूप सामाजिक विखंडन और अखिल भारतीय राष्ट्रभक्ति पर संकीर्ण निष्ठाओं का प्राबल्य हावी हो रहा है। कभी-कभी लगता है कि हौज में राष्ट्रीय एकता का जल भरने वाली संघ साधना एक इंच व्यास के नल की तरह है, जबकि उस हौज को खाली करने वाली 'वोट राजनीति' के नल का व्यास पांच इंच का है। संघ एक घंटे में राष्ट्रभक्ति का जो पानी भरता है, उसे वोट-राजनीति 10 मिनट में खाली कर देती है।
संघ को दूसरी चिन्ता यह है कि भारतीय संस्कृति के उदात्त जीवन मूल्यों के आधार पर जिस चरित्रवान, नैतिक समाज रचना का संकल्प लेकर वह चला था, आज समाज जीवन का बिल्कुल उल्टा दृश्य उसके सामने है। टैक्नालाजी द्वारा प्रदत्त मनोरंजन, शरीर सुख और विलासिता के नित नए उपकरणों के अविष्कार ने पूरी जीवन शैली को बदल डाला है। परिवार का वातावरण और दिनचर्या बदल गई है। हमारी प्राचीन संस्कृति 'अर्थ' और 'काम' की जन्मजात एषणाओं को संयमित करने की साधना करती आई है, यही साधना गांधीजी के आंदोलन की मुख्य प्रेरणा थी, पर आधुनिक टैक्नालाजी द्वारा निर्मित उपभोक्तावादी सभ्यता प्रचार के नए साधनों के द्वारा इन्हीं एषणाओं के उद्दीपन का वातावरण पैदा कर रही है। इसीलिए टेलीविजन, इंटरनेट और प्रिंट मीडिया केवल आर्थिक भ्रष्टाचार और उच्छृंखल यौनाचार के समाचारों से पटा रहता है। वह दिखाता तो यह है कि इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगना चाहिए और इसके लिए वह सरकार व पुलिस के विरुद्ध जनाक्रोश भड़काता है, किन्तु समाज के हस्तक्षेप पर 'मोरल पुलिस' जैसे व्यंग्य वाणों से हमला बोल देता है। संघ एक नैतिक समाज जीवन की रचना के लिए संकल्पबद्ध है। अत: उसे टैक्नालाजी, मीडिया और राजनीति के शक्तिशाली प्रहारों का सामना करते हुए अपनी संस्कृति साधना को विजय की ओर ले जाना है। अ. भा. प्रतिनिधि सभा की बैठकों में सत्ता-राजनीति का नहीं, इस संस्कृति साधना के बारे में ही विचार-मंथन होता है। उसकी चिन्ता यह है कि कहीं वह अनैतिकता के विशाल समूह में नैतिकता का छोटा- सा द्वीप तो नहीं रह जाएगा।

Sunday 23 June 2013

हिन्दुस्थान ने हजारो वर्षों तक अजेय शक्ति एवं समृधि का जीवन जीते हुए भी केवल अपने आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक प्रकाश को ही सम्पूर्ण विश्व में प्रसृत किया | सुदूर अतीत एवं मध्य अतीत में भारत से गए हुए साधू,सन्यासी एवं विद्वानों ने जिस ज्ञान के आलोक का प्रसार किया - उसके साक्षी आज भी मेक्सिको, जापान, चीन, मंगोलिया, इंडोनेसिया, साइबेरिया, मलाया, आदि देश है | इस्लाम और ईसाइयत के समान हिंदुत्व का झंडा कभी भी रक्त और आँसुओ के समुद्र में से होकर सामरिक विजय की ओर नहीं बढा | अमरीका में जाकर बसने वाली यूरोप की जातियों के समान वहाँ के स्थानीय निवासियों के संहार जैसा कोई कलंक भारत के माथे पर कभी नहीं लगा | हिंदू ने कभी विनाश करने का नहीं, सदा विकास का ही सोचा है, जो जहाँ है वहाँ से उसे आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया |

" कोई बतलाये काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी |
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जितने का निश्चय ||

यही कारण था की भारत के इस नैतिक ओर सांस्कृतिक अभियान का स्थानीय जनता ने स्वागत किया | यह जीत थी स्वार्थत्याग की, चारित्र्य की और उदात्त भावनाओ की, जिसने लोगो में विद्रोह के नहीं कृतज्ञता के भाव भरे | सदियाँ बीत जाने पर भी इस देश के प्रति वह कृतज्ञता का भाव कम नहीं हुआ | भारत का नाम सुनते ही डॉ. रघुवीर जैसे महामनीषी के सामने नतमस्तक होने वाले साइबेरिया के वयोवृद्ध की श्रधा में अथवा इंडोनेशिया से भारत आने वाले मुसलमान से गंगाजल लाने का आग्रह करने वाली उनकी पत्नी की इच्छा में क्या हमे इसी कृतज्ञता के दर्शन नहीं होते ? उन देशो के निवासियों के लिए भारत का प्रवास केवल प्रवास नहीं, तीर्थयात्रा है |